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अर्थात् - कदाचित् सोने और चादी के कैलाश के समान असख्य पर्वत भी हो जाए तो भी लोभी मनुष्य के लिए वे कुछ भी नही होते, इतना पाकर भी वह सन्तुष्ट नही होता । क्योकि इच्छा आकाश को समान अनन्त होती है ।
खेत्तु वत्थु हिरण्ण च, पुत्तदारं च बन्धवा । चइत्ताणं इमं देहं गन्तव्वमवसस्स मे || अर्थात् - मनुष्य को सोचना चाहिए कि क्षेत्र भूमि, घर, सोना, चादी, पुत्र, स्त्री और बान्धव तथा इस देह को भी छोड कर मुझे एक दिन अवश्य जाना पड़ेगा ।
जैनागमो के अलावा, जैनेतर धर्म-ग्रन्थो मे भी परिग्रह का जोरदार विरोध पाया जाता है । वैदिक शास्त्र यजुर्वेद मे *लोभत्याग के सम्बन्ध मे कहा है
मा गृध. कस्यचिद् धनम् (यजुर्वेद, ४० - १ )
अर्थात्- किसी का धन देख कर लोभ मत करो, सोचो कि यह धन किस के पास रहा है ? यह तो आता और जाता ही रहता है ।
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भगवद्गीता मे नरक के तीन द्वार बतलाए गए है उन मे . एक लोभ भी है । कहा है
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त्रिविधं नरकस्येद, द्वार नाशनमात्मनः ।
काम. क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रय त्यजेत् ॥ अर्थात्-नरक के तीन द्वार है जो आत्मा का विनाश करने वाले हैं । वे ये है - काम, क्रोध और लोभ । अतएव आसक्ति आदि सव
मोह, लोभ, लालसा, तृष्णा, परिग्रह के ही नामान्तर है ।