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(१८४) साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, चातुर्मासिक या साम्वत्सरिक मर्यादा कर लेने से गृहस्थ अपरिग्रहवाद को जीवनांगी बना सकता है। आत्मोत्थान तथा पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय गान्ति के लिए अपरिग्रहवाद के ग्राश्रयण से बढ कर अन्य कोई मार्ग नही है। जैसे पाल के विना तालाब मे कितना भी पानी आ जाए फिर भी वह भरता नही है, इसी प्रकार तृष्णातुर मनुष्य को कितना ही द्रव्य क्यो न मिल जाए, पर उसे कुछ शान्ति प्राप्त नही होने पाती। शान्ति की प्राप्ति तो तृष्णा के परित्याग से और सन्तोष के आश्रयण से ही हो सकती है। अपरिग्रहवाद इसी सत्य को लेकर अध्यात्म जगत के सामने • उपस्थित होता है । एक आचार्य अपरिग्रहवाद की महत्ता को लेकर कितनी सुन्दर वात कहते हैजह-जह अप्पो लोहो, जह जह अप्पो परिग्गहारंभो। तह तह सुहं पवड्ढइ, धम्मस्स य होइ ससिद्धी ॥ __अर्थात्-जैसे जैसे लोभ कम होता है और ज्यों ज्यो आरभ परिग्रह घटता चला जाता है, त्यो-त्यो सुख की वृद्धि होती चली जातो है और धर्म को सिद्धि होती चली जाती है ।
नव बोलऊपर २६ बोलो का निर्देश किया गया है, इन बोलो के प्रकाश मे मनुप्य परिग्रह की मर्यादा सुगमता से कर सकता है। इसके अलावा, आदरणीय जैनाचार्यों ने परिग्रह की मर्यादा
९ प्रकार और वताए हैं । वे भी मननीय, चिन्तनीय और आचरणीय होने से आदरणीय है । उन का विवरण इस प्रकार है
१ क्षेत्रयथाप्रमाण-क्षेत्र की मर्यादा करना। क्षेत्र के खेत,