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अर्थात् - परिग्रह से रहित मुनि जो और रजोहरण आदि वस्तुए रखते है, रक्षा के लिए रखते है, तथा अनासक्ति भाव से वे उन का प्रयोग
- अ० ६-२० भी वस्त्र, पात्र, कम्बल वे एक मात्र सयम की
करते है ।
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जपि वत्थं व पाव वा केवलं पायपुछण । त पि सजम-लज्जट्ठा, धारति
परिहरन्ति य ॥
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- श्र० ६-२१ अर्थात - प्राणिमात्र के रक्षक भगवान महावीर ने अनासक्तिभाव से वस्त्रादि रखने में परिग्रह नही बतलाया है । भगवान के मतानुसार किसी वस्तु पर मूर्च्छा, ममत्व या आसक्ति का होना ही वास्तव मे परिग्रह होता है ।
सव्वत्थुवहिणा बुद्धा, सरक्खणपरिग्गहे ।
अवि अप्पणोऽवि देहम्मि, नायरन्ति ममाइय ||
- ० ६-२२ अर्थात् - ज्ञानी पुरुष सयम के सहायभूत वस्त्र, पात्र आदि 'उपकरणों को केवल सयम की रक्षा के विचार से हो अपने उपयोग मे लाते है, या रखते है । उनमे उन का मूर्च्छाभाव नही होता है । पात्र आदि की तो बात ही क्या है, वे तो अपने शरीर पर भी ममत्त्व-भाव नही रखते है । इसीलिए वे अपरिग्रही कहे जाते है ।
आचार्यदेव श्री शयभव के उक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि परिग्रह मूर्च्छा या श्रासक्ति का नाम है । जहा- जहां आसक्ति भाव है, वहा वहा परिग्रह जन्म लेता चला जाता
न सो परिग्गहो वृत्तो नायुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वृत्तो, इइ वृत्त महेसिणा ||