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(१४३) यह उद्देश्य कि अपराधी भविष्य मे अपराध न करे और लोगो को इस से शिक्षा प्राप्त हो, सफल नहीं होने पाता । ईश्वर का कर्तव्य बनता है कि वह किसी भी व्यक्ति को दण्ड देने से पूर्व उस के अपराध को प्रमाणित करे और यह स्पष्ट करे कि इस व्यक्ति ने अमुक दुष्कर्म किया था, इसलिए इस को अमुक दण्ड दिया जाता है। ऐसा करने से ही ईश्वर की दण्डमर्यादा सफल हो सकती है । ऐसा करने से हो जनमानस उस दुष्कर्म से भयभीत हो कर उस का परित्याग कर सकता है। इस के अलावा, ऐसा करने से ही दण्डित व्यक्ति का सुधार सभव हो सकता है और भविष्य मे वह पापकर्म से बच भी सकता है। परन्तु ईश्वर ऐसा करता नहीं है।
७-जो ईश्वर कर्म का फल देने का सामर्थ्य रखता है, उस मे अपराधी को दुष्कर्म से रोकने की क्षमता भी रहती है। लौकिक व्यवहार भी ऐसा ही है। जो शासक डाकुओ के दल को उस के अपराध के फलस्वरूप जेल मे बन्द कर सकता है अथवा प्राणदण्ड दे सकता है तो उस शासक मे यह भी शक्ति होती है कि यदि उस को पता चल जाए कि डाकुओ का दल अमुक गाव मे या अमुक नगर मे अमुक समय पर डाका डालेगा और लोगो के जीवनधन को लूटेगा तो उस शासक का कर्तव्य बनता है कि वह डाका डालने के समय से पूर्व ही डाकुओ को डाका डालने से रोके, उन्हे गिरफतार करे । यदि शासक जानबूझ कर प्रजा के धनमाल का सरक्षण नहीं करता है तो वह अपने कर्तव्य की हत्या करता है, और न्यायालय द्वारा अपराधी प्रमाणित करके दण्डित किया जाता है। अनेको वार देखा गया है कि सत्याग्रह करने वाले स्वयसेवक सत्याग्रहस्थान पर