________________
(११३) है। छीना-झपटी आरभ हो जाती है । अन्त मे बन्दर डण्डे लेकर आपस मे लडने-मारने को जुट जाते है। इधर यह वानरयुद्ध हो रहा है. उधर वह गुड और डण्डे रखने वाला व्यक्ति इस युद्ध को देख कर चटकारिया मारता है, बल्लियो उछलता है, जी भर कर हसता है। सचमुच ऐसी ही स्थिति ईश्वर को हो रही है । वह भी ससार के रगमच पर हो रहे मानवीय नाटक को देख कर हर्ष मनाता है, उसका उदासीन मानस हर्षविभोर हो उठता है। क्या आप ऐसे विनोदप्रिय ईश्वर को ईश्वर मानेगे ? आप भले ही उसे ईश्वर मानिए, किन्तु जैनदर्शन उसे ईश्वर स्वीकार नहीं करता। दूसरो को लडाने मे, भिडाने मे जिसे आनन्द मिलता हो, दुखाग्नि मे जल रहे मानव-जगत को देखकर जिस का जीवन-वृक्ष लहलहा उठता हो, आततायी और क्रूर जीवन के उत्कर्ष मे जो तालिया पोटता हो, जैनदर्शन उसे भगवान तो क्या एक सच्चा इन्सान भो मानने को तैयार नही है।
सभी अध्यात्मदर्शन परमात्मा को निर्विकारी मानते है। सभी कहते है कि उस मे इच्छा आदि का कोई विकार नही है, वह सर्वथा निरिच्छ है । फिर उस मे जगन्निर्माण की इच्छा कैसे उत्पन्न हो सकती है ? यदि कुछ क्षणो के लिए ईश्वर मे इच्छा का होना मान लिया जाए तो प्रश्न उपस्थित होता है कि ईश्वर की इच्छा नित्य है या अनित्य ? अनित्य तो हो नही सकती क्योकि ईश्वर नित्य है । नित्य ईश्वर की इच्छा भी नित्य ही हो सकती हैं। जब ईश्वर की इच्छा नित्य है, विनाशिनी नही है तो वह सदैव एक जैसी रहनी चाहिए। जव ईश्वर की इच्छा एक जैसी रहेगी तो ईश्वर मे परस्पर