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है तो शरीर की तरह श्रात्मा को भी नित्य मानना पडेगा । यदि बालक के शरीर परिमाण को छोडे बिना आत्मा युवा शरीर रूप होता है तो यह सभव नही है । क्योकि एक परिमाण को छोडे विना दूसरा परिमाण हो नही सकता । इसके अलावा यदि जीव को शरीर-परिमाण मान लिया जाय तो शरीर के एकाध भाग के कट जाने पर जीव के भी अमुक भाग की हानि माननी पडेगी । श्रत जीव को शरीरपरिमाण नही मानना चाहिए । इस आशका का समाधान निम्नोक्त है
"जीव वालक के शरीर परिमाण को छोडकर ही युवा शरीर के परिमाण को धारण करता है" यह सत्य है । इस मे असभव जैसी कोई बात नही है । व्यवहार इस सत्य का पोषक है । जैसे सर्प अपने फण वगैरह को फैला कर बडा कर लेता है वैसे ही आत्मा भी सकोच - विकास गुण वाला होने के कारण भिन्न-भिन्न आकार वाला हो जाता है । जीवतत्त्व का स्वभाव ही ऐसा है कि वह निमित्त मिलने पर प्रदीप या सर्प के फण की तरह सोच और विकास को प्राप्त कर लेता है । रही उसकी अनित्यता की बात, उस के सम्बन्ध मे जैनदर्शन वहता है कि शारीरिक परिमाण की अपेक्षा से जीव अनित्य है । बाल, युवा, वृद्ध इन अवस्थाओ की दृष्टि से जैनदर्शन जीव को अनित्य स्वीकार करता है । किन्तु द्रव्य दृष्टि से वह जीव को नित्य ही कहता है । इसके अलावा शरीर खण्डित हो जाने पर जीव खण्डित नही होता है । क्योकि शरीर के खण्डित हुए भाग मे आत्मा के प्रदेश विस्तार रूप हो जाते है । यदि खण्डित हुए भाग मे आत्मा के प्रदेश न माने जाए तो शरीर से अलग हुए भाग मे जो कम्पन देखा जाता है, उसका कोई दूसरा कारण