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समभाव
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जो साधक सम्पूर्ण विश्व को समभाव से देखता है, वह न किसी का प्रिय करता है, और न किसी का अप्रिय ही।
२५८ धर्मोपदेष्टा जिस प्रकार पुण्यवान्-धनवान् को उपदेश देता है उसी प्रकार तुच्छ-दीन, दरिद्र को भी उपदेश देता है और जिस प्रकार तुच्छ को उपदेश देता है उसीप्रकार पुण्यवान् को भी।
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समभाव वही साधक रख सकता है जो अपने आप को हर किसी भय से विलग रखता है।
२६० साधक मिलने पर गर्व न करे और न मिलने पर शोक न करे ।
२६१ सलेखना मे स्थित साधक न जीने की अभिलाषा करे और न मरने की कामना करे। वह जीवन और मरण किसी मे भी आसक्त न होता हुआ समभाव मे रहे ।
२६२ सकट की घडियो मे भी मन को ऊंचा-नीचा अर्थात् डॉवा-डोल नही होने देना चाहिए।
२६३ जो साधक आत्मा को आत्मा से जानकर राग-द्वेष के प्रसगो मे सम रहता है, वही पूज्य है।
२६४ साधक को सदा समता का आचरण करना चाहिए ।
२६५
सुव्रती को सर्वत्र समता-भाव रखना चाहिए ।