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धर्म और दर्शन (भावना) ६५
२४३ जिस प्रकार सिंह हरिण को पकड कर ले जाता है उसी प्रकार अन्तकाल मे मृत्यु भी मनुष्य को ले जाती है । उस समय माता-पिता व भाई आदि कोई भी अपने जीवन का भाग दे कर उन्हे बचा नही सकते ।
२४४ ससारी प्राणी अपने प्रिय-बन्धुजनो के लिए बुरे से बुरे कर्म भी कर डालता है, किन्तु जव उस कर्म का दुष्फल भोगने का समय आता है, तब वह अकेला ही भोगता है, उस समय वे वन्धु-जन वन्धुता नही दिखाते, उस का भाग नही बटाते ।
२४५ पढे हुए वेद तुम्हारा सरक्षण नही कर सकते, भोजन कराये हुए द्विज
भी अन्धकार मे ले जाते हैं, तथा पुत्र भी रक्षा नहीं कर सकते ऐसी स्थिति मे कौन विवेकशील पुरुष इन्हे स्वीकार करेगा?
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ये पराधीन आत्मा द्विपद-दास-दासी, चतुष्पद-घोडा-हाथी, खेत, घर, धन-धान्य आदि सब कुछ छोड कर केवल अपने किये कर्मों को साथ लेकर अच्छे या बुरे परमव (जन्म) मे चला जाता है।
२४७ भाव सत्य से आत्मा भाव-विशुद्धि को प्राप्त करता है ।
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भाव-विशुद्धि मे वर्तमान जीव अर्हत्-प्ररूपित धर्म की आराधना के लिये समुद्यत होता है।