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धर्म और दर्शन ( ब्रह्मचर्य )
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उग्र ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करना अति कठिन कार्य है ।
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जो मनुष्य स्त्री-विषयक आसक्तियो का पार पा जाता है उसके लिए शेष समस्त आसक्तियाँ वैसे ही सुगम हो जाती हैं - जैसे महासागर को पार पा जानेवाले के लिए गगा जैसी महानदी ।
१२३ अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महादोपो का स्थान है ।
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जिस प्रकार लाक्षा - निर्मित घडा आग से पिघल जाता है वैसे ही मतिमान् पुरुष भी स्त्री के सहवास से विषाद को प्राप्त होता है ।
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यह ब्रह्मचर्य धर्म, नित्य, शाश्वत और जिन द्वारा उपदिष्ट है । इसके द्वारा पूर्वकाल मे अनेक जीव सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं और भविष्य मे भी होगे ।
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देव भूमि से लेकर समस्त लोक मे दुख का मूल एक मात्र कामभोगो की वासना ही है ।
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ब्रह्मचर्य-साधनारत साधक - भिक्षु श्रृगार का वर्जन करे और शरीर की शोभा बढानेवाले केश, दाढी आदि को श्रृगार के लिए धारण न करे ।
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ब्रह्मचारी - शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन पाँच प्रकार के कामगुणो का सदा परित्याग करे ।
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स्थिरचित्त भिक्षु दुर्जय काम भोगो को हमेशा के लिए छोड दे ।