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धर्म और दर्शन (सत्य)
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८१ काने को काना, नपुसक को नपुसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना यद्यपि सत्य है, तथापि ऐसा कहना उचित नही है। (क्योकि इससे उन आत्माओ को दुख पहुंचता है ।)
८२ अपनी प्रशसा और दूसरो की निन्दा भी असत्य के जैसा ही है।
हे पुरुप | तू सत्य को पहचान ।
८४ सत्य मे दृढ रहो। सत्याभिभूत बुद्धिमान् व्यक्ति सभी पाप कर्मों को नष्ट कर डालता है।
८५ जो भापा कठोर हो और दूसरो को पीडा पहुंचानेवाली हो, वैसी भाषा न बोले।
श्रेष्ठ साधु पापकारी, निश्चयकारी और जीव-घातकारी भाषा न बोले, इसी तरह क्रोध लोभ भय और हास्य से भी पापकारी वाणी न बोले । हंसते हुए भी नही बोलना चाहिए।
८७
जो मतिमान् साधक सत्य की आज्ञा मे सदा तत्पर रहता है, वह मार-अर्थात् मृत्यु के प्रवाह को पार कर जाता है ।
सत्य-निष्ठ साधक सब ओर दु खो से घिरा रहकर भी घबराता नही है और न विचलित ही होता है ।