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धर्म और दर्शन (अहिंसा) १७
६२
शस्त्र - हिंसा एक से एक वढकर है, किन्तु अशस्त्र - अहिंसा से बढकर कोई शस्त्र नही है । साराश कि अहिंसा से बढकर दूसरी कोई साधना नही है ।
६३
सभी प्राणियो को दुख अप्रिय है, अत किसी को नही मारना चाहिए ।
६४
जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है । अर्थात् उसकी और तेरी आत्मा एक समान है ।
६५
किसी भी प्राणी को दुख नही देना चाहिए ।
६६
खून
से सना वस्त्र खून से धोने से शुद्ध नही होता ।
६७
आत्मार्थी साधक हिंसा को उत्पन्न करनेवाली कथा न करे । ६८
जो हिसात्मक प्रवृत्ति से विलग है, वही बुद्ध — ज्ञानी है । ६६
भय और वैर से निवृत्त हुए प्राणियो के प्राणो का घात न करे ।
७०
इस लोक मे जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं उन सब की जानेअनजाने हिंसा नही करना और न दूसरो से भी करवाना चाहिए |
७१
प्राणवध का अनुमोदन करनेवाला पुरुष कदापि सर्वदुखो से मुक्त नही हो सकता ।
७२
प्राणी हिसा ही वस्तुत ग्रन्थ - बन्धन है, यही मोह है, यही मृत्यु है, और यही नरक है ।
७३
ससार के किसी भी प्राणी की न अवहेलना ( तिरस्कार) करनी चाहिए और न निन्दा |