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धर्म और दर्शन (अहिंसा)
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४४ किसी भी जीव का अतिपात-हिंसा मत करो।
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ऊर्ध्व-लोक अघो-लोक और तिर्यग्-लोक-इन तीनो लोको मे जितने भी त्रस और स्थावर जीव है उनके प्राणो का विनाश करने से दूर रहना चाहिए । वैर की शाति को ही निर्वाण कहा गया है ।
४६ जीतेन्द्रिय पुरुप मिथ्यात्त्व-आदि दोष दूर करके किसी भी प्राणी के साथ जीवन पर्यन्त, मन, वचन और काया से वर-विरोध न करे ।
४७ परपीडा मे प्रमोद मनानेवाले अज्ञानी जीव अन्धकार से अन्धकार की ओर ही जाते हैं।
४८ सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नही चाहता।
- ४६ भगवान महावीर ने उन अठारह धर्म-स्थानो मे प्रथम स्थान अहिंसा का कहा है। इसे उन्होने सूक्ष्मता से देखा है। सब जीवो के प्रति सयम रखना अहिंसा है।
'इसने मुझे मारा'-कुछ लोग इस विचार से हिंसा करते है। 'यह मुझे मारता है' - कुछ लोग इस विचार से हिंसा करते हैं । 'यह मुझे मारेगा'- कुछ लोग इस विचार से हिंसा करते हैं।
जिस प्रकार जीवो का आधार स्थान पृथ्वी है वैसे ही भूत और भावी ज्ञानियो के जीवन-दर्शन का आधार-स्थान शान्ति अर्थात् अहिंसा है। साराश यह है कि तीर्थंकरो को इतना ऊँचा पद प्राप्त होता है वह अहिंसा के उत्कृष्ट पालन से ही ।