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अहिंसा
३७ सभी जीवो को अपना आयुष्य प्रिय है, सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल है । वध सभी को अप्रिय लगता है और जीना सबको प्रिय लगता है। प्राणी-मात्र जीवित रहने की कामनावाले हैं। सवको अपना जीवन प्रिय लगता है।
३८ किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ही ज्ञानी होने का सार है।
३६
लोकाश्रित जो त्रस और स्थावर जीव है, उनके प्रति मन-वचन और काया-किसी भी प्रकार से दण्ड का प्रयोग न करें।
४० जो व्यक्ति प्राणियो की स्वय हिंसा करता है, दूसरो से हिंसा करवाता है और हिंसा करनेवालो का अनुमोदन करता है, इस प्रकार वह ससार मे अपने लिये वैर-भाव को ही बढाता है ।
प्राणियो के प्रति आत्मतुल्य-माव रखो ।
४२ सम्यग्बोध प्राप्त मतिमान मनुष्य हिसा से उत्पन्न होनेवाले वैरभाव तथा महाभयकर दु खो को जानकर अपने को हिंसा से बचावे ।
शत्रु अथवा मित्र सभी प्राणियो पर समभाव की दृष्टि रखना ही अहिंसा है।