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धर्म और दर्शन (धर्म)
२६ जो धर्म आचरण में कठिनाईवाला और फल मे अच्छाईवाला प्रतीत हो, उसका सम्यक् रीति से पालन करना चाहिए।
२७ धर्म गाँव मे भी हो सकता है और जगल मे भी। वस्तुत धर्म न कही गांव में होता हे और न कही जगल मे ही, बल्कि वह तो अन्तरात्मा मे होता है।
२८ धर्म दीपक की तरह अज्ञान-अन्धकार को दूर करनेवाला है।
२६ बुद्धिमान पुरुष को धर्म का परिज्ञान करना चाहिए।
जैसे पिया हुमा कालकूट विष और अविधि से पकडा हुआ शस्त्र अपना ही घातक होता है, उसी प्रकार शब्दादि विषयो की पूर्ति के लिए किया हुआ धर्म भी, अनियन्त्रित वेताल के समान साधक का विनाश कर डालता है।
श्रुत-चारित्ररूप धर्म का विज्ञाता सरल होता है।
३२ बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जिन-द्वारा उपदिष्ट धर्म का आचरण करे।
३३
सरल आत्मा की शुद्धि होती है और शुद्धात्मा मे ही धर्म स्थिर रह सकता है।
३४
वृद्धावस्था और मृत्यु के वशीभूत तथा सदैव मूढ बना हुआ प्राणी धर्म के तत्त्व को नही जानता ।
उत्तम धर्म का श्रवण मिलना निश्चय ही दुर्लभ है ।
३६
धर्म का मूल विनय है।