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शिक्षा और व्यवहार (विकोणं सुभाषित)
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६७३ न कभी ऐसा हुआ है, न होता है, और न कभी होगा ही कि जो चेतन है वे कभी अचेतन-जट हो जायें और जो अचेतन-जड हैं वे चेतन हो जायें।
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कुछ मनुप्य गरीर तथा धन आदि मे दीन-गरीब होते हैं किन्तु उनका मन और सपाल्प वडा ही उदार होता है।
६७५ जो व्यापारी ग्राहक को अभीष्ट वस्तु देता है और प्रीति-वचन से सन्तुष्ट भी करता है वह व्यवहारी है। जो न देता है और न प्रीतिवचन से ही सन्तुष्ट करता है वह मव्यवहारी है।
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उम्र और यौवन प्रतिपल व्यतीत हो रहा है ।
৩৩ वयावृत्त्य-सेवा से जीव तीर्थकर नाम-गोत्र का उपार्जन करता है।
६७८ स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरण कर्म का क्षय करता है ।
६७६ जीवन जल के बुलबुले के समान तथा कुशा के अग्रभाग पर स्थित जलविन्दु के समान चचल है।
६८० पापकारी प्रवृत्ति अन्तत दु ख ही देती है।
६८१ समार के उन सभी मनुष्यो को और देवताओ की भी वह सुख प्राप्त नहीं है, जो सुख अव्यावाध स्थिति वाले सिद्धात्माओ को है।
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जो व्यवहार धर्म सम्मत है, जिसका तत्त्वज्ञ आचार्यों ने सदा आचरण किया है, उस व्यवहार का आचरण करनेवाला मनुष्य कही भी निन्दा का पात्र नही होता ।