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शिक्षा और व्यवहार (बोध-सूत्र) २६६
६४० धैर्यशाली पुरुष सदा क्रिया- कर्तव्य मे ही अभिरुचि रखते हैं।
६४१ जीवन अनित्य है, क्षणभगुर है, फिर क्यो हिंसा मे आसक्त होते हो ?
६४२ जो माता पिता, पुत्र पत्नी आदि मे मोह-भाव रखता है, उसको परलोक मे सुगति सुलभ नही है ।
९४३ इस जीवन मे किये हुये सत्कर्म इस जीवन मे भी सुखदायी होते हैं और इस जीवन मे किये हुये सत्कर्म अगले जीवन मे भी सुखदायी होते हैं ।
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यदि यह सारा जगत और सारे जगत का धन भी तुम्हे दे दिया जाय, तब भी वह तुम्हारी रक्षा करने मे अपर्याप्त-असमर्थ है।
६४५ साधक सर्व प्रकार से शरीर का मोह त्याग कर आनेवाले परिपहो के प्रति यह विचार करे कि-"मेरे शरीर मे कोई परीपह नही है।"
६४६ कष्टो के आने पर भी मन को सयम की परिधि से बाहर नही जाने देना चाहिए।
६४७ प्रथम वन्धन को समझो और पश्चात उसे तोडो।
१४८ आत्म-हित का अवसर कठिनाई से मिलता है।