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स्नेह-सूत्र
९०७ स्नेह के बन्धन भयकर हैं।
९०८ जो तेरे प्रति स्नेह करे, उनसे भी तू नि स्नेह भाव से रह ।
६०९ जिस प्रकार शरदऋतु का कुमुद जल मे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तू अपने स्नेह का विच्छेद कर निर्लिप्त वन ।
९१० पूर्व सयोगो को छोड देने पर फिर किसी भी वस्तु मे स्नेह न करे ।
६११ जैसे वन मे उत्पन्न वृक्ष को मालुका लता घेर लेती है, उसी प्रकार मुनि को स्वजन असमाधि उत्पन्न कर स्नेह-सूत्र मे बाँध लेते हैं ।
६१२ स्नेह-पाश में बंधे हुए मुनि की स्वजन उसी तरह चौकसी रखते हैं, जिस तरह नये पकडे हुये हाथी की ।
६१३
माता, पिता, स्वजन आदि का स्नेह सम्बन्ध छोडना उसी तरह कठिन है जिस तरह अथाह समुद्र को पार करना ।
६१४
ज्ञाति ससर्ग को ससार का कारण समझ कर साधु उसका परित्याग कर देवे।
९१५ उदार भोगो के प्रति अनासक्त रहता हुआ मुमुक्षु आत्मा यत्नपूर्वक सयम पथ मे रमण करे ।।
जिस प्रकार महागिरी हवा के झझावात से डोलायमान नही होता, उसी प्रकार व्रत-निष्ठ पुरुप सम-विषम, ऊँच-नीच, अनुकूल-प्रतिकूल परिषहो के आने पर भी धर्म-पथ से विलग नहीं होता।