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धर्म और दर्शन (धर्म)
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मनुष्यत्व मूलधन है। देवगति लाभरूप है और जो मनुष्य नरक तथा तिर्यक्गति को प्राप्त होता है, वह अपनी मूलपूंजी को भी गवा देनेवाला मूर्ख है।
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आर्य महापुरुषो ने समभाव मे धर्म कहा है ।
धर्म के दो रूप हैं— श्रुतधर्म और चारित्रधर्म ।
कपटरहित आत्मा ही धर्म का सच्चा आराधक होता है ।
२० अधार्मिक आत्माओ का सोते रहना अच्छा है और धर्मनिष्ठ आत्माओ का जागते रहना।
धर्मनिष्ठ आत्मामो का बलवान होना अच्छा है और धर्म-हीन आत्माओ का दुर्बल रहना ।
२२ तीर्थंकर भगवान के द्वारा उपदिष्ट धर्म, पानी से कभी भी न ढकनेवाले द्वीप के समान प्राणियो के लिए शरणभूत एव रक्षक है।
२३ धर्म के चार द्वार हैं- क्षमा, सन्तोप, सरलता और नम्रता।
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जो बिना किसी विमनस्कता के पवित्रचित्त से धर्म मे स्थित है, वह निर्वाण को प्राप्त करता है।
२५ जो आर्य धर्म का सम्यक् आचरण करता है, वह दिव्यगति को प्राप्त करता है।