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शिक्षा और व्यवहार (पाप-परिणाम)
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८४६ किये हुए पापकर्म के पश्चात्ताप से जीव वैराग्यवत होकर क्षपक-श्रेणी प्राप्त करता है।
८४७ जीवो द्वारा जो पाप किया गया है, किया जा रहा है तथा किया जायेगा वह सब दुख का मूल हेतु है ।
८४८ जिस प्रकार नाग काचली को छोड़ देता है, उसी प्रकार सन्तपुरुष पाप रज को झाड देते हैं।
८४६ जिसने ससार के दुखो का स्वरूप ठीक तरह से जान लिया है, वह कभी पाप कर्म नही करता है ।