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शिक्षा
७३६
अविनीत को विपत्ति प्राप्त होती है और सुविनीत को सम्पत्ति । जिसने ये दोनो बाते जान ली है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है ।
७३७
जो मुनि आचार्य, और उपाध्याय की सेवा सुश्रुषा तथा उनकी आज्ञा का पालन करता है, उनकी शिक्षा उसी प्रकार बढती है, जैसे जल से सीचा हुआ वृक्ष ।
७३८
अकार, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य इन स्थानो— कारणो से शिक्षा प्राप्त नही होती ।
७३६
धर्मशिक्षा से समापन्न मनुष्य गृहवास मे भी सुव्रती है ।
७४०
जो प्रिय करता है, जो प्रिय बोलता है- वह अपनी अभीष्ट शिक्षा प्राप्त कर सकता है |
७४१–७४२
आठ प्रकार से साधक को शिक्षाशील कहा जाता है । जो हास्य न करे, जो सदा इन्द्रिय और मन का दमन करे, जो मर्म प्रकाश न करे, जो चरित्र से हीन न हो, जिसका चरित्र दोषो से कलुपित न हो, जो रसो अति लोलुप न हो, जो क्रोध न करे, और जो सत्य मे रत हो ।
७४३
जिस जगह क्लेश - सघर्ष की सभावना हो, उस स्थान से सदा दूर रहना चाहिये ।
७४४
भन्ते । कैसे चले ? कैसे खडा हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोये ? कैसे खाये ? कैसे बोले ? जिससे कि पाप कर्म का बन्ध न हो
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