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जीवन और कला (साधक-जीवन ) २०६
७३१
पुन - पुन
मोह-ग्रस्त होनेवाला साधक न इस पार - इस लोक का रहता है और न उस पार - परलोक का रहता है ।
७३२
साधक को कैसा भी कष्ट हो, वह प्रसन्न मन से सहन करे, कोलाहलक्रन्दन न करे ।
७३३
साधक को यदि कोई दुर्वचन कहे तो भी वह उस पर गरम न हो अर्थात् क्रोध न करे ।
७३४
सयमी साधक अर्चना, रचना, वन्दना, पूजा, ऋद्धि सत्कार और सम्मान की मन से भी अभिलापा न करे ।
७३५
यश, कीर्ति, प्रशसा, वन्दन, पूजन और ससार के जितने भी काम भोग है, विद्वान् साधक आत्मघातक समझ कर इन सब का परित्याग कर दे ।