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जीवन और कला (कर्मवाद)
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६६६ समारी जीव विविध प्रकार के कर्मों का अर्जन कर विविध नामवाली जातियो मे उत्पन्न हो, ससार मे भिन्न-भिन्न स्वरूप का स्पर्श कर सब जगह उत्पन्न हो जाते है।
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यह जीव अपने कृतकर्मों के अनुसार कभी, देवलोक मे कभी नरक मे तो कभी असुरो के निकाय में उत्पन्न होता है ।
७०१ यह जीव किसी समय चाण्डाल, किसी समय बुक्कस [वर्णसकर जाति] किसी समय कीट, किसी समय पतङ्ग, किसी समय कुन्थु, और किसी समय चीटी भी बनता है।
७०२ सभी जीव अपने आस-पास छहो दिशाओ मे स्थित कर्म पुद्गलो को ग्रहण करते हैं और आत्मा के सर्व प्रदेशो के साथ सर्व कर्मों का सर्व प्रकार से वन्धन हो जाता है ।
७०३ कृत कर्म इस जन्म मे अथवा अगले जन्म मे जिस तरह भी किये गए हो, वे उसी प्रकार से अथवा अन्य प्रकार से फल अवश्य देते हैं।
७०४ ससार चक्र मे परिभ्रमण करता हुआ जीव अपने दुष्कृत्यो के कारण सतत नूतन कर्म बांधता है तथा उसका फल भोगता है।
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जैसे तस्कर सेन्ध के द्वार पर पकडा जाने पर अपने ही दुष्कर्म के कारण चीरा-मारा जाता है, वैसे ही पापाचारी जीव भी इस लोक तथा परलोक मे दोनो ही जगह भयकर कष्ट उठाता है। क्यो कि जो कर्म एक बार बाघ लिये जाते हैं वे लाख प्रयत्न करने पर भी भोगे बिना छूट नही सकते।