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________________ जीवन और कला (कर्मवाद) १९७ कर्म से ही समस्त उपाधियाँ उत्पन्न होती है। ६८६ कर्म का मूल क्षण-हिंसा है। ६६० आत्मा अकेला ही अपने कृतदु ख का भोक्ता है। भूतकाल मे जैसा भी कर्म किया गया है, भविष्य मे वह उसी रूप मे समक्ष आता है। ६६२ ससार के सभी प्राणी अपने ही कृतकर्मों से कष्ट उठाते है । ६६३ जो नूतन कर्मों का बन्धन नही करता है, उसके पूर्ववद्ध पाप कर्म विनष्ट हो जाते हैं। ६९४ जो आत्माएँ कर्मों से अत्यधिक लिप्त हैं उन्हे बोधि-(ज्ञान) प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है। ६६५ कर्मकर्ता के पीछे-पीछे सदा चलते रहते हैं। पूर्वसचित कर्म-रूपी रज को दूर कर । ६६७ जीव अपने स्वय के उपार्जित कर्मजाल मे आबद्ध होता है । कृतकों को भोगे बिना मुक्ति नही है । ६६८ जीव कर्मों के सग मूढ बनकर अत्यन्त वेदना तथा दु ख को प्राप्त होते हैं।
SR No.010166
Book TitleBhagavana Mahavira ke Hajar Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherAmar Jain Sahitya Sansthan
Publication Year1973
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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