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जीवन और कला (कर्मवाद)
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आत्मा अमूर्त है, इसलिए यह इन्द्रियो के द्वारा नही जाना जा सकता। अमूर्त होने ने कारण ही आत्मा नित्य है, यह निश्चय है कि मिथ्यात्वादि कारणो से आत्मा को कर्म-वन्धन होता है और यह बन्धन ही ससार का हेतु है।
६८२ वीज के जल जाने पर उससे नवीन अकुर प्रस्फुटित नही हो सकता, वैसे ही कर्मरूपी वीजो के दग्ध हो जाने पर उसमे से जन्म-मरणरूप अकुर प्रस्फुटित नही हो सकता।
जिस प्रकार जीव कर्म-बन्धन मे फंस जाते है, वैसे ही उनसे मुक्त भी हो जाते है और जैसे कर्म के संग्रह से असख्य कष्टो का सामना करना पडता है । वैसे ही कुछ कर्मों के विलग होने पर सर्व दु खो का अत हो जाता है-ऐसा ज्ञानियो ने कहा है ।
६८४ जिस प्रकार आर्त-रौद्र ध्यान से विकल्प चित्तवाले जीव दु ख-सागर को प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैराग्य प्राप्त जीव कर्म-दलिक को नष्ट कर डालते है।
६८५ जैसे राग-द्वेप द्वारा उपाजित कर्म-फल कष्टप्रद होते हैं, वैसे ही सर्वकर्मों के क्षय से जीव सिद्धावस्था प्राप्त कर मिद्धलोक मे अवस्थित हो जाता है।
प्राणी-मात्र अपने कृत-कर्मों के कारण ही विविध योनियो मे भ्रमण करते हैं।
६८७ जो साधक कर्म मे से अकर्म की दशा में पहुंच चुका है, वह लोक व्यवहार की सीमा रेखा को लाघ गया है।