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जीवन और कला ( राग-द्व ेष )
६६६
यह सम्भव नही है कि कानो मे पडनेवाले अच्छे या बुरे शब्दो को न सुने जाय, बल्कि शब्दो के प्रति जगनेवाले राग-द्व ेष का भिक्षु को परित्याग करना चाहिए ।
१६१
६७०
यह सम्भव नही है कि आँखो के सामने आनेवाला अच्छा या बुरा रूप न देखा जाय, बल्कि रूप के प्रति जागृत होनेवाले राग-द्वेष का भिक्षु को परित्याग करना चाहिए ।
६७१
यह सम्भव नही है कि नाक के समक्ष आया हुआ सुगन्ध या दुर्गन्ध सूंघने मे न आए, वल्कि गन्ध के प्रति जगने वाले राग-द्वेष की वृत्ति का भिक्षु को त्याग करना चाहिए ।
६७२ जीभ पर आया हुआ के प्रति जगने वाले
यह सम्भव नही है कि चखने मे न आए, वल्कि उस को परित्याग करना चाहिए ।
अच्छा या बुरा, रस राग-द्वेष का भिक्षु
६७३
अच्छे या बुरे
यह सम्भव नही है कि शरीर से स्पर्शित होनेवाले स्पर्श का अनुभव न हो, वल्कि स्पर्श के प्रति जगनेवाले राग-द्वेष का भिक्षु को परित्याग करना चाहिए ।
६७४
जो आत्मा अपने भीतर मे राग-द्वेष रूप भाव- कर्म नही करता उसे नये कर्म का बन्ध नही पडता ।