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मोह
६५१ जैसे वृक्ष की जड सूख जाने पर उसे कितना ही जल से सीचा जाय फिर भी वह हरा-भरा नही होता, वैसे ही मोहनीय कर्म के क्षीण होने पर पुन कर्म उत्पन्न नही होते ।
६५२
अपने द्वारा किये हुए दुष्कर्म को दूसरे निर्दोष व्यक्ति पर डाल कर उसे लाछित किया जाय और यह कहा जाय कि "यह पाप तू ने किया है" वह महामोह कर्मबन्ध का कारण वनता है ।
६५३
जो सत्य घटना को जानता हुआ भी सभा वीच अस्पष्ट एव मिश्रभाषा का प्रयोग करता है, तथा कलह- द्वेोप से प्रयुक्त है, वह महामोह रूप पापकर्म का बन्ध करता है ।
६५४ जिसके आश्रय तथा सहयोग से सम्पत्ति का अपहरण करनेवाला करता है |
जीवनयात्रा चलती हो, उसी की दुष्ट-जन- महामोह कर्म का वन्ध
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जो बहुजन समाज का नेता है तथा दुखसागर मे डूबे हुये दुखी मनुष्यो का जो द्वीप के समान आधार भूत है, ऐसे महान उपकारी व्यक्ति की हत्या करनेवाला महामोह कर्म का उपार्जन करता है ।
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जो मोह का नाश करता है वह अन्य अनेक कर्म विकल्पो का नाश करता है ।