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माया
भले ही कोई नग्न रहे और देह को कृश करे, भले ही कोई मास-मास का अनशन करे, किन्तु जो अन्दर मे दम्भ-माया रखता है, वह जन्ममरण के अनन्त चक्र मे भटकता है।
मायावी और प्रमादी पुन -पुन गर्भ मे जन्म-मरण करता है ।
६३२ बास की जड की तरह गाठदार दम्भ, आत्मा को नरकगति की ओर ले जाता है।
माया को जीत लेने से ऋजुता-सरलता प्राप्त होती है ।
सरलता से माया-कपट को जीते ।
मायावी जीव मिथ्यादृष्टि होता है, अमायावी सम्यग्दृष्टि ।
जिस के अन्तर मे माया का अश रहा हुआ है वही विकुर्वणा अर्थात् नानारूपो का प्रदर्शन करता है, जबकि माया-रहित सरलात्मा नही करता है।
माया मित्रता का नाश करती है।
धर्म के विषय मे की हुई सूक्ष्म-माया भी अनर्थ का कारण बनती है।