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जीवन और कला ( मृत्यु-कला) १६५
५८३-५८४
तत्त्वज्ञ पुरुषो ने मरण के दो स्थान कहे है- एक अकाम-मरण और
दूसरा सकाम-मरण ।
अज्ञानी बाल जीवो के अकाम मरण अनेक वार होता है, किन्तु पण्डितो के सकाम मरण उत्कर्पत एक वार ही होता है ।
५८५
जीवन-धागा टूट जाने पर पुन जुड नही पाता ।
५८६ – ५८७
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जैसे कोई गाडीवान समतल राजपथ को जानता हुआ भी उसे छोडकर विपम-दुरूह मार्ग से चल पडता है और गाडी की धुरी टूट जाने के पश्चात शोकाकुल होता है ।
इसी प्रकार धर्म का सुमार्ग छोड़ कर अधर्म के कुमार्ग को स्वीकार मृत्यु के मुख मे पडा हुआ अज्ञानी धुरी टूटे हुए गाडीवान की तरह शोकाकुल वनता है ।
कर
५८८
जो जीव जिन वचनो से परिचित नही हैं, वे अभागे अनेकानेक बालमरण तथा अकाम-मरण करते रहते हैं ।
५८६
पण्डित पुरुष ही मृत्यु की दुर्दम सीमा को लाघकर अविनाशी पद को प्राप्त होते हैं ।
५६०
जो व्यक्ति मृत्यु से सदा सतर्क रहता है वही उस से मुक्ति पा सकता है ।
५६१ धर्म परायण बुद्धिमान साधक बाह्य और आभ्यतर तप का आचरण कर अनुक्रम से शरीर त्याग के अवसर को जान कर सलेखना को स्वीकार कर के शरीर पोपण रूप- आरम्भ का परित्याग कर देते हैं ।
५६२
सलेखना मे स्थित मुनि को यदि अपने जीवन का अन्त करनेवाले किसी विघ्न का ज्ञान हो जाए तो उस बुद्धिमान मुनि को सलेखना काल मे ही शीघ्र भक्त - परिज्ञा आदि का अनुष्ठान कर लेना चाहिए ।