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मृत्यु-कला
५७६ जैसे वाज पक्षी तीतर को एक ही झपाटे मे मार डालता है, ठीक वैसे ही आयु क्षीण होने पर मृत्यु भी मनुष्य के प्राण हर लेता है ।
५७७ मनुष्य देह अनित्य-क्षण भगुर है, तथा व्याधि-जरा-मरण और वेदना से पूर्ण है।
५७८ जिम की मृत्यु के साथ मंत्री हो, जो मृत्यु के मुख से भाग सकता हो, तथा जो यह जानता हो कि मैं नही मरू गा, वही कल की इच्छा करसकता है।
५७६ जीव मात कारणो से अकाल-मृत्यु को प्राप्त होता है-हार्दिक भावना के आघात से, शस्त्रादि के प्रहार से, अधिक आहार की मात्रा से, वेदना की अभिवृद्धि से, गडढे आदि मे गिरने से, कठोर वस्तु की सख्त चोट से, और श्वासोच्छ्वास के अवरुन्धन से ।
५८० जो शस्त्र के द्वारा, विष-भक्षण द्वारा, अग्नि मे प्रविष्ट होकर या पानी मे कूदकर आत्म-हत्या करता है और मर्यादा से अधिक उपकरण रखता है, वह जन्म-मरण की परम्परा बढानेवाला होता है ।
५८१ शीलवान और बहुश्रुत भिक्षु मृत्यु के क्षणो मे भी सत्रस्त नहीं होते ।
५८२ आत्मार्थी साधक कष्टो से जूझता हुआ मृत्यु से अनपेक्ष बन कर रहे ।