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क्षमा
५६५ में समस्त जीवो से क्षमा मांगता हूँ और सव जीव मुझे भी क्षमा प्रदान करें। मेरी सर्व जीवो के साथ मैत्री है, किसी के भी साथ मेरा वैर-विरोध नही है।
आचार्य, उपाध्याय, शिष्यगण और सार्मिक वन्धुओ तथा कुल और गण के ऊपर मैंने जो भी कपाय-भाव किये हो, उसके लिए मैं मन, वचन और काय से क्षमा माँगता हैं।
५६७ मैं नतमस्तक होकर समस्त पूज्य श्रमणसघ से अपने सर्व अपराधो की क्षमा मांगता हूँ। और उनके प्रति मैं भी क्षमाभाव रखता हूँ।
५६८ धर्म मे स्थिर चित्त होकर मैं सद्भावपूर्वक सर्व जीवो से अपने अपराधो की क्षमा मांगता हूँ, और उनके सब अपराधो को मैं भी सद्भाव पूर्वक क्षमा करता हूँ।
मुनि को पृथ्वी के समान क्षमाशील होना चाहिए।
५७० क्षमापना से आत्मा मे अपूर्व हर्षानुभूति प्रगट होती है।
५७१ क्षमा से यश का (सयम) का सचय करें।
५७२
क्षमा से जीव परीषहो पर विजय प्राप्त कर लेता है ।
५७३ साधक पुरुप पीटने पर क्रोध न करे तथा गाली आदि देने पर द्वेप न करे।
५७४ पण्डित पुरुष को क्षमा धर्म की आराधना करनी चाहिए ।
५७५
साधक प्रिय, अप्रिय सब शन्तिपूर्वक सहन करे ।