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जीवन और कला (श्रावकधर्म)
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५४५ सामायिक से जीव सावद्ययोग से विरति-निवृत्ति का उपार्जन करता
चतुर्विंशति-स्तव से जीव सम्यक्त्व की विशुद्धि को प्राप्त होता है।
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वन्दना से जीव नीच कुल मे उत्पन्न होने जैसे कर्मो को क्षीण करता है । और ऊंचे कुल मे उत्पन्न करनेवाले कर्म का अर्जन करता है।
५४८ प्रतिक्रमण से जीव व्रत के छिद्रो को रोक देता है।
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कायोत्सर्ग से जीव अतीत और वर्तमान के अतिचारो की विशुद्धि करता है।
प्रत्याख्यान से जीव आश्रव द्वार का निरोध करता है ।
जिस साधक की आत्मा सयम मे, नियम मे, तथा तप मे तल्लीन है, उसी की वास्तविक सामायिक है । ऐसा केवली भगवन्त ने फरमाया
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जो साधक त्रस और स्थावर सभी प्राणियो के प्रति समभाव रखता है, उसी की वास्तविक सामायिक है। ऐसा केवली भगवन्त ने फरमाया है।
५५३ स्वाध्याय करते रहने से समस्त दु खो से मुक्ति प्राप्त होती है। .