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इन्द्रिय-निग्रह
भिक्षु सर्व इन्द्रियो को सुसमाहित करता हुआ विचरण करे ।
५२७ पाँच इन्द्रियो को वश मे कर अपनी आत्मा का उपसहार करना चाहिए । अर्थात् प्रमाद की ओर बढती हुई आत्मा को पीछे हटा कर धर्मपथ पर स्थिर करनी चाहिए।
५२८-५२६ जुआ खेलने मे निपुण जुआरी जैसे "कृत" नामवाले पाशे को ही अपनाता है, 'कलि' 'द्वापर' और 'त्रेता' को नही, और अपराजित रहता है | वैसे ही पण्डित पुरुष भी इस लोक मे जगत्राता सर्वज्ञो ने जो उत्तम और अनुत्तर धर्म कहा है उसे ही अपने हितके लिए ग्रहण करे। शेप सभी धर्म-इन्द्रिय विषयो को उसी प्रकार छोड दे जिस तरह कुशल जुआरी 'कृत' के अतिरिक्त अन्य सभी पाशो को छोड देता है ।
जिस प्रकार उत्तम जाति की औषधि रोग को नष्ट कर देती है, पुन उभरने नही देती। उसी प्रकार जितेन्द्रिय पुरुष के चित्त को राग तथा विषय रूपी कोई शत्रु सता नही सकता।