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जीवन और कला (भिक्षाचारी)
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५१४ गृहस्थ के घर में जाकर सयमी न अति ऊंचे से, न अति नीचे से, न अति समीप से और न अति दूर से प्रासुक-अचित और परकृतदूसरो के निमित्त वना हुआ पिण्ड-आहार को ग्रहण करे ।
जहां श्वान हो, तत्काल प्रसूता गाय हो उन्मत्त साड, हाथी अथवा घोडा हो, या जिस स्थान पर बालक खेल रहे हो, कलह हो रहा हो, युद्ध मच रहा हो, वहां साधु पुरुष को नहीं जाना चाहिए, बल्कि दूर से ही उसे त्याग देना चाहिये ।
५१६ गाँव मे अथवा नगर मे भिक्षा के लिए गया हुआ मुनि उद्वेगरहित बन कर शात चित्त से धीरे-धीरे चले ।
सयमी साधक एषणा समिति का पालन करता हुआ गांव मे अनियतवृत्ति से अप्रमत्त हो कर गृहस्थो के घरो से गोचरी (भिक्षा) की गवेपणा करे ।
५१८ आमत्रण देने के पश्चात् कोइ साधु आहार का इच्छक न हो तो उक्त साधु अकेला ही चौडे मुखवाले प्रकाशयुक्त पात्र मे (भाजन) वस्तु नीचे न गिरे इस पद्धति से यतना-विवेक पुरस्सर आहार ग्रहण करे ।
५१६-५२० जिस आहार, जल, खाद्य, स्वाद्य के विषय मे जो साधु इस प्रकार जान जाय अथवा सुन ले कि यह दान के लिए, पुण्य के लिए याचको के लिए है, तो वह भक्त-पान उसके लिए अकल्पनीय होता है । अत उस दाता को मुनि प्रतिपेध करे-इस प्रकार का आहार-पानी मेरे लिये अकल्पनीय है।
५२१ भिक्षा न मिलने पर जो खेद प्रकट नहीं करता और मिलने पर प्रशसा नही करता वह पूज्य है।