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भिक्षाचरी
५०७
जिस प्रकार भ्रमर वृक्ष के फूलो से थोडा-थोडा रस पीता है, किसी पुष्प को म्लान नही करता और अपनी आत्मा को सन्तुष्ट कर लेता है ।
५०८-५०६
उसी प्रकार लोक मे जो मुक्त श्रमण - साधु है, वे दाता द्वारा दिये हुए दान, आहार एव एपणा मे रत रहते हैं, जैसे भ्रमर पुष्पो मे । भ्रमर के समान बुद्ध पुरुष अनिश्रित होते है, वे किसी एक पर आश्रित नही होते, नानापिण्ड मे रत है, और जो दान्त है, वे अपने इन्ही गुणो के कारण साधु कहलाते हैं ।
५१०
भिक्षु को यदि मर्यादानुसार निर्दोप भिक्षा न मिले तो शोक न करे, किन्तु "सहज ही तप होगा" ऐसा मानकर क्षुधा आदि परीपहो को सहन करे ।
५११
वर्षा बरस रही हो, कुहरा छा रहा हो, आंधी चल रही हो और मार्ग मे जीव-जन्तु उड रहे हो, ऐसी स्थिति मे साधु भिक्षा के लिए अपने स्थान से बाहर न निकले ।
५१२
साधु सदा समुदान ( धनवान और गरीब घरो की ) भिक्षा करे, वह निर्धन कुल का घर समझ कर, उसे टालकर धनवान के घर न जाय ।
५१३
अलोलुप, रस मे अगृद्ध, जीभ का दमन करनेवाला, अमूच्छित महामुनि रसनेन्द्रिय के पोषण के लिए न खाए, बल्कि जीवन-निर्वाह के लिए आहार करे ।