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जीवन और कला ( श्रमण-धर्म )
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शरीर और इन्द्रियो के क्लान्त होने पर भी मुनि अपने मे साम्य - भाव स्थापित करे ।
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सयमी साधक प्रथम प्रहर मे स्वाध्याय और दूसरे मे ध्यान करे । तीसरे मे भिक्षाचरी [ गोचरी ] और चौथे मे पुन स्वाध्याय करे ।
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जो श्रमण रुग्ण मुनि की सेवा करता है, वह महान् निर्जरा तथा महान् पर्यवसान - परिनिर्वाण करता है ।