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जीवन और कला (वैराग्य)
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४१२ हे भन्यो | तुम समझो, क्यो नही समझ रहे हो ? मरने के बाद परभव मे सबोधि की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है । जो रात्रियाँ बीत रही हैं वे पुन लौट कर नही आती । मनुष्य का जीवन भी पुन प्राप्त होना सुलभ नहीं है।
मनुष्य-शरीर असार है, व्याधि और रोगो का घर है । जरा और मरण से ग्रस्त है । अत इसमे मुझे एक क्षण भी आनन्द नही मिल रहा है ।
४१४ यह शरीर पानी के बुलबुले के समान नश्वर है। पहले या पीछे जब कभी इसे छोडना अवश्य है । अत इस के प्रति मेरी तनिक भी प्रीतिआसक्ति नहीं है।
४१५ विवेकशील आत्मा धन, पुत्र, ज्ञाति, परिग्रह तथा अन्तरशोक को छोडकर निरपेक्ष हो सयम की परिपालना करे ।
४१६ तुम जिन वस्तुओ से सुख की अभिलाषा रखते हो, वस्तुत वे सुख के हेतु नही है।
४१७ जंसे अत्यन्त दुखी हुए पुत्र, मृत पिता को श्मशान ले जाते है, और इसी प्रकार पिता भी अपने पुत्रो तथा वन्धुओ को भी श्मशान ले जाता है । अतः हे राजन् । यह देख कर तप का आचरण कर ।