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वैराग्य
४०४
जैसे ताल-वृक्ष का फल वृन्त से टूट कर नीचे गिर पडता है, वैसे ही आयु-कर्म के क्षीण होने पर प्रत्येक प्राणी का जीवन-धागा टूट जाता है।
४०५ यह आत्मा परिवार आदि से मुक्त होकर परलोक मे अकेला ही गमनागमन करता है।
४०६ वीतराग मार्ग की अवज्ञा करते हुए, अल्प-वैपयिक सुखो के लिए तुम अनन्त सुख (मोक्ष) को नष्ट मत करो।
४०७
मनुष्य के पुण्य क्षीण होने पर भोग साधन उन्हे उसी प्रकार छोड देते हैं, जिस प्रकार क्षीण-फलवाले वृक्ष को पक्षी ।
४०८
सुन्दर से सुन्दर सुख का उपभोग करनेवाले देव और चक्रवर्ती आदि भी अन्त मे काम-भोगो की अतृप्त-दशा मे ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।
४०8
विषयासक्त जीव इस लोक मे भी विनाश को प्राप्त होते हैं और परलोक मे भी।
४१० आत्म-निष्ठ साधक की दृष्टि मे काम-भोग रोग के समान है।
४११ देव और इन्द्र भी (भोगो से) न कभी तृप्त होते हैं और न कभी सन्तुष्ट ही।