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धर्म और दर्शन (आत्मा)
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३५५ आत्मा का दु ख स्वकृत है अर्थात् अपना ही किया हुआ दुख है, किसी अन्य का नही।
३५६ एक दुर्जेय आत्मा को जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है।
३५७ आत्मा अमूर्त तत्त्व है, यह इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है। यह अमूर्त है इस लिये नित्य है।
३५८ अपनी आत्मा को सदा पापकर्मों से बचाये रखना चाहिए ।