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धर्म और दर्शन ( आत्मा )
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वस्तुत वन्धन और मोक्ष अपने भीतर ही है ।
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दुश्मनो के साथ युद्ध करने से
आत्मा के साथ ही युद्ध कर, बाहरी तुझे क्या लाभ ? आत्मा को आत्मा के द्वारा ही जीत कर मनुष्य सच्चा सुख पा सकता है |
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आत्मा ही सुख-दुख करने वाली तथा उनका नाश करनेवाली है । सत् प्रवृत्ति मे लगी हुई आत्मा ही मित्ररूप है जब कि दुष्प्रवृत्ति मे लगी हुई आत्मा ही शत्रु रूप हैं ।
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जो आत्मा है वह विज्ञाता है जो विज्ञाता है वह आत्मा है । जिससे जाना जाय वह आत्मा है, जानने की शक्ति से ही आत्मा की प्रतीति है ।
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जो पुरुष दुर्जय सग्राम मे दम लाख योद्धाओ पर विजय प्राप्त करे, उसकी अपेक्षा वह एक अपने आप को जीतता है यह उसकी परम विजय है ।
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दुराचार मे प्रवृत्त आत्मा जितना हमारा अनिष्ट करती है उतना अनिष्ट तो एक गला काटनेवाला दुश्मन भी नही करता ।
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हे आत्मन् I तू स्वय ही अपना निग्रह कर । ऐसा करने से दुखोसे मुक्त हो जायगा ।
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आत्मा और है शरीर और (अन्य ) है ।