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आत्मा
३३३ जो एक को जानता है, वह सब को जानता है और जो सब को जानता है वह एक को जानता है ।
३३४ मेरी आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही कूटशाल्मली वृक्ष है। आत्मा ही काम-दूधा-धेनु है और आत्मा ही नन्दनवन है ।
शरीर को नौका कहा गया है, आत्मा को नाविक कहा गया है, और ससार को समुद्र कहा गया है । महान् मोक्ष की एषणा करनेवाले महर्षिगण इसे तैर जाते हैं।
हे पुरुष । तू अपने आप का निग्रह कर, स्वय के निग्रह से ही तू ससस्त दु खो से मुक्त हो जायगा।
३३७ आत्मा का ही दमन करना चाहिए क्योकि आत्मा दुर्दम्य है । उस का दमन करने वाला इहलोक और परलोक मे सुखी होता है।
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दूसरे लोग बन्धन और वध के द्वारा मेरा दमन करें, इसकी अपेक्षा यही अच्छा है की मैं स्वय सयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा का दमन करूं।
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