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धर्म और दर्शन (तत्व-स्वरूप)
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आत्माओ के कर्म चेतना-कृत है, अचेतना-कृत नही ।
३२२ अस्थिर हमेशा बदलता है, स्थिर कभी नही बदलता । अस्थिर हमेशा टूट जाता है, स्थिर कभी नही टूटता ।
३२३ शरीर का आदि भी है और अन्त भी है।
३२४ जीव शाश्वत भी है और अशाश्वत भी। द्रव्य दृष्टि से शाश्वत है और भाव-दृष्टि से अशाश्वत ।
३२५ जीव न कभी बढते हैं और न कभी घटते हैं। वल्कि सदा अवस्थित रहते हैं।
कोई भी क्रिया किये जाने पर ही सुख, दु ख का कारण बनती है, न किये जाने पर कभी नही।
३२७ जो जीव हैं वह निश्चित ही चैतन्य है और जो चैतन्य है वह निश्चित ही जीव है।
जो असत् है वह कभी सत् रूप मे उत्पन्न नही होता।
३२९ सुन्दर पुद्गल कुरूपता मे परिणत होते रहते हैं और कुरूप पुद्गल सुन्दरता मे।