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धर्म और दर्शन ( वीतराग-भाव )
२६४ स्पर्शेन्द्रिय का विषय स्पर्श है । जो स्पर्श राग का हेतु होता है उसे मनोज्ञ कहा जाता है, और जो द्वेष का हेतु होता है उसे अमनोज्ञ कहा जाता है । जो मनोज्ञ - अमनोज्ञ स्पर्शो मे समदृष्टि रखता वही वीतराग कहलाता है ।
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२६५
निर्मम, निरहकार, वीतराग और आश्रवो से रहित निर्ग्रन्थ मुनि, शाश्वत केवलज्ञान को प्राप्त कर परिनिवृत्त हो जाता है अर्थात् पूर्णतया आत्मस्थ हो जाता है ।
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वीतराग-भाव को प्राप्त हुआ जीव सुख-दुख मे सम हो जाता है ।
२६७
आत्मविद् साधक को निस्पृह होकर आनेवाले कष्टो को सहन करना चाहिए ।