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धर्म और दर्शन ( वीतराग-भाव )
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पावन दृष्टिवाला साधक पाप कर्म से विलग रहता है ।
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वीतराग सत्य द्रष्टा के लिए कोई उपाधि होती है या नही ? नही
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होती है ।
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जिस साधक ने अभिलाषा - आसक्ति को नष्ट कर दिया है, वह मनुष्यो के लिए मार्ग-दर्शक चक्षु रूप है ।
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साधक सुखाभिलाषी बन काम - भोगो की कामना न करे, और प्राप्य भोगो के प्रति भी अप्राप्य निस्पृह भाव रखे ।
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श्रोत्र का विपय शब्द है । जो शब्द राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेप का हेतु होता है उसे अमनोज्ञ कहा जाता है । जो मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दो मे समदृष्टि रखता है वही वीत - राग होता है ।
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चक्षु का विपय रूप है । जो रूप राग का हेतु होता है उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है उसे अमनोज्ञ कहा है । जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपो मे समान रहता है वही वीतराग होता है ।
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घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध है । जो गन्ध राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है उसे अमनोज्ञ कहा जाता है । जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ दोनो मे समदृष्टि रखता है वही वीतराग होता है ।
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रसनेन्द्रिय का विषय रस है । जो रस राग का हेतु होता है उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है उसे अमनोज्ञ कहा जाता है । जो मनोज्ञ - अमनोज्ञ रसो मे समदृष्टि रखता है । वही वीतराग होता है ।