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विश्वास होता है कि यह अनन्तशक्ति का धारक है-अनन्त सुख और शांति का अधिकारी है । परिस्थितियों का वह स्वयं निर्माता है । वह चाहे तो शभसंकल्प और सम्यक् श्रद्धा द्वारा
अपने को परमोत्कृष्ट-पद पर पहुँचा ले। और यदि वह बहककर इन्द्रियभोग में अंधा हो जाय, तो अपने को पतित बना ले। राजकुमार महावीर श्रावक थे। वह शुभ-संकल्प और सम्यक श्रद्धा को लेकर जीवन पथ में अग्रसर हुये थे। उनका जीवन तीन भागों में बंटा हुआ मिलता है। उनके जीवन का पहला भाग हमे महावीर के आदर्श गहस्थ जीवन का दर्शन कराता है। उसका दूसरा भाग उन्हें ज्ञानी-ध्यानी महावीर व्यक्त करता है। यह उनकी साधना का समय था। अंतिम भाग मे वह त्रिलोकी पूज्य सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थकरहोकर चमकते हैं । जीवन के उद्देश्य को उन्होंने सफल बनाया-वह कृतकृत्य हुये, तरणतारण बन गये । वह ज्ञातकुल नन्दन से त्रिलोकवन्दनीय महत् पुरुष हुये।
भगवान महावीर के नाम उनके जीवन के त्रि-विधि-पट को पर्याप्त प्रगट करते. है । गहस्थ जीवन में कौमारावस्थामे वह 'वीर वर्द्धमान' रहते हैं । देवेन्द्र ने उन्हें 'वीर' कहकर पुकारा
और राजा सिद्धार्थ ने उन्हें 'वर्द्धमान' कहा । कवियों ने 'नाथकुलनन्दन' रूपमे उनका स्मरण किया । और क्षत्रियों ने उन्हें 'ज्ञातपुत्र' कहकर पुकारा २। आखिर उनका पितकुल 'ज्ञात' ही था । परन्तु अपनी माता त्रिशला विदेहदत्ता की अपेक्षा वह 'विदेह' अथवा 'विदेह दिन्न' भी कहलाये ३ । 'वैशालिक' १. मच• पृष्ठ, २५३ व २५५ म०पु० पृष्ठ ६१-६२ व संजैह०, भा०२
खंड १ प.१०.६२ २. 'णाए णायपुत्ते णायकुल नियत्ते'--प्राचारान ३. आधारान सूत्र २४३७