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के उपरान्त नन्दवंश के राजा शासनाधिकारी हुये थे, जो प्राय जैन थे। सम्राट् नन्दवर्द्धन ने कलिङ्ग विजय करके कलिङ्ग जिन की प्रतिमा को लाकर राजगह में स्थापित किया था। नन्द के राजमत्री राक्षस आदि भी जैन थे। उनके पश्चात भारत के भाग्य विधाता मौर्यवंश के सम्राट हुये । इनमें सम्राट चन्द्रगुप्त तो स्वयं मुनि होगये थे और सम्प्रति एवं सालिसूक ने जैनधर्म का प्रचार भारत के बाहर के देशों में भी किया था । सम्राट अशोक के समान सम्प्रति ने भी अनेक धर्मलेख उत्कीर्ण कराये थे। साराश यह है कि यद्यपि वीर निवाणोपरान्त जैन संघमे आन्तरिक कलह उपस्थित हुआ, परन्तु वह इतना प्रवल नहीं था कि जैन श्रमण अपने धर्म को भल जाते और लोकहित करने में अग्रसर न रहते । उन्होंने तत्कालीन शासन तन्त्र का पथप्रदर्शन किया और उसे अहिंसा से अनुप्राणित रक्खा । यही कारण है कि इस काल में भारत का गौरव बढा और उसकी प्रतिष्ठा विदेशी शासकों की दृष्टि में चढ़ी थी। विदेशों में भी अहिंसा धर्म की प्रगति हुई और लोक भ० महावीर के दयामय उपदेश से अपना कल्याण कर सका भारत में हिन्दूधर्म पर बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म का विशेष प्रभाव पड़ा और उसने शाकाहार एवं अहिंसा को जैनधर्म में गहण किया । कण्वों ने यद्यपि पशुयज्ञों के प्रचलन का प्रयत्न किया, परन्तु वे उसमे सफल न हुये । भ० महावीर का अहिंसामई उपदेश भारतीयों के मन पर ऐसा चढ़ा कि पशुयज्ञोंकी पुनरावृति भारत में हो न पाई। १. संजई०, भा० २ खंर २ पृष्ठ ४-५ २. "इन ( म० महावीर ) के धर्म के परिणामसे वैदिक धर्म में भी 'अहिंसा परम धर्म माना गया, और शाकाहार सिद्धान्त अधि. कांश हिन्द जनता ने स्वीकार किया।"-के. जी. मशरूवाता लोक मान्य तिलक ने भी 'गीता रहस्य' में यही लिखा है।