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दिव्योपदेश का साधारण भाव उससे इस प्रकार प्रगट होता है"समस्त लोक मोह से अन्धा हो रहा है । वे जीव धन्य हैँ जिन्होंने तृष्णारूपी विषवेल को जड़ से उखाड़ कर दूर फेंक दिया है । नाश या पतन अथवा दुखों की ओर बढ़ते हुये जीव की रक्षा करने में न भार्या समर्थ है, न वन्धुवर्ग समर्थ है, कोई भी समर्थ नहीं है । इन्द्रिय विषय एक बार नहीं, अनेक वार सेवन किये हैं, परन्तु इन इन्द्रिय विषयों से कभी तृप्ति नहीं होती । ज्यों ज्यों उनका सेवन करो त्यों त्यों वासना जगती है - तृपा बढ़ती है। तृपा से दुखी हुआ जीव हित और अहित को नहीं पहचानता - वह विवेकहीन होता है और संसार में रुलता है । उसे जन्म और मरण से कोई नहीं बचा सकता उसके लिये संसार दुखरूप है । वह यह जानता है - जन्म, जरा और मरणके दुखोंको भुगतता है, परन्तु आत्मभ्राति से कभी प्रशम में रत नहीं होता !"
"साधारण नीव शरीर को ही आपा मानने की गलती करते हैं और जिससे शरीर को आराम मिले, उसे अच्छा समझते हैं-इन्द्रिय वासना की पूर्ति मे उन्हें आनन्द आता है, परन्तु ऐसे इन्द्रिय विषयग्रस्त लोगों के जीवन में भी ऐसे अवसर आते हैं जिनमें उन्हें अपनी ग़लती का भान उनके हृदय की आवाज कराती है - इसे चाहे 'परम' ध्वनि कहिये अथवा विवेक या ज्रमीर ! इस प्रकार मनुष्य जीवन के दो पहलू हैं- (१) मिथ्या अन्धकारमय, जिसमें स्वार्य और इन्द्रियलिप्सा जैसे निशाचरों का साम्राज्य होता है, (२) प्रकाशमय जीवन, जो ज्ञानमई होता है । तव धर्म लौकिक और पारमार्थिक रुप में दो तरह का है । पहला धर्म दूसरे को दृष्टिकोण में रखकर चलता है। जो व्यक्ति इस धर्म को नहीं पहचानता वह मिथ्या अन्धकार में - ठोकरें खाता है ।"
' प्रत्येक ज्ञानी धर्मात्मा जानता और मानता है कि प्रत्येक