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( २६६) महावीर का जमाना पार्थिवता से परे था-वह आत्मन्नानी स्वावलम्बी था! इसलिए प्रत्येक आत्मा का सम्पर्क साधा आत्मा से होताथा-'अन्तर्ध्वनि' को कौन नहीं सुन और समझ सकता है ? महावीर मुह से नहीं बोलते थे - उन्हे दुनियादारा की बातें करनी ही नहीं री-वह कान से मुंह लगाकर बालत ही क्यों ? उनका नाता किसी से नहीं था और था सब से । 'आत्मवत्सर्व भतेषु' का सूत्र उनमें मृर्तिमान हुआ था जो वह थे वह लोक था! अन्तर केवल आत्मविकास का था ! महावार पूर्ण विकसित जन-सूर्य थे उनका व्यवहार प्रात्मामई या वह दुनियां की बातें बोलते ही कैसे ? जो उनके अन्तर में था, वही बाहर आया योगसाधना का फल उन्हें अन्तरध्वनि जानत आत्माल्हाद मिला! उनके सम्पर्क में जो आया, वह भी उसका रस पा गया ! फिर भला कहिये, उनके पास आत्मज्ञानमई 'अन्तरध्वनि के अतिरिक्त और क्या सुनने को मिलता ? अतएव जिन आचार्यों ने तीर्थकर की वाणी को 'निरक्षरी' लिखा है, वह ठीक है उपर्युक्त अपेक्षा से ! किन्तु जिन दूसरे आचार्यों ने उसे 'अर्द्धमागधी-भाषा मई लिखा है, वह मिथ्या नहीं हैसही है। जिनेन्द्र को 'अन्तरध्वनि' वीतराग विज्ञान की परिपाटी-धर्मतीर्थ लोग मे चलना अनिवार्य है ! तीर्थयार के गणघर इसीलिए होते हैं कि वह जिन मार्ग को प्रवाहित रक्खें। अतः गणवर महाराज के लिए जिनधर्म को जीवित रखने के उद्देश्य से यह श्रावन्यक है कि वह उस भाषा मे जिनेन्द्र की वाणी को प्रथ बद्ध कर दें जिस भाषा को सबसे अधिक मनुष्य समझ सकें ! दूसरे शब्दों में यह कहिये कि जिन वाणी के प्रचार का माध्यम 'अर्द्ध मागधी' भापा रही है। म. महावीर का धर्मोपदेश मनव देश में हुया था, जहा 'मागधी भाषा' वाली जाती थी परंतु जिनवाणी समन्न पार्य-भय-लोकया
दूसरे श्राचाया
लिखा है,
पाटी-जानन्द को