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'अपापपुरी' का नाम दिया उसे अतिशयोक्ति करने की चाहत थी, ऐसा कोई नहीं कह सकता । अहिंसा, अपरिग्रह, और तपस्या अगर पाप को हटाने मे समर्थ न हो, तो मनुष्य को कभी पुण्य के मार्ग का सेवन करना ही नहीं चाहिये |
"रास्ते की एक बड़ी सर्पाकृति मोड़ पार करके हम जलमंदिर के महाद्वार के पास जा पहुँचे । दूसरे तीर्थस्थानों मे जैसी एक तरह की घबड़ाहट होती है, वैसी यहां नहीं हुई । यहा सब कुछ शान्त और प्रसन्न था । नया महाद्वार और उस पर बना हुआ नक्कारखाना, जो अब तक पूरा नहीं हुआ है, जलमंदिर तक बना हुआ चौड़ा पुल - सब कुछ एक खास किस्म के लाल पत्थर से पटा हुआ है। पुल के दोनों तरफ बगीचे हैं और तालाब के अन्दर कमल के पत्ते 'सारे तालाव को ढक देना उचित होगा या नहीं' इसके अनिश्चय में सहजभाव से डोल रहे हैं । नीचे घाट के सामने वाला मंदिर पुल से ठीक समकोण मे नहीं है, यह विशेषता तुरन्त ही ध्यान खींचती है । इस लिए कुछ अटपटा-सा लगता है । परन्तु अन्त में मनमे यही निर्णय होता है कि इसमें भी एक प्रकार की विशेष सुन्दरता है ! सचमुच पावापुरी का जलमंदिर आल्हाद दायक है। यहां पावापुरी में धान के खेतों के बीच शोभा देने वाला यह कमल कासार अपनी स्वाभाविकता से राज करता है और उसमें बना हुआ जल-मंदिर किसी लोभी मनुष्य की तरह सारे द्वीप को व्याप नहीं लेता है । उसने अपने चारों तरफ घूमने-फिरने के लिये काफी खुली जगह रख छोड़ी है और अपरिग्रह का वातावरण वनाया है । मदुरा के विशाल मंदिरो मे अगर भव्यता है, तो पावापुरी के इस छोटे से मंदिर में अणिमा और लावण्य की सिद्वि है ।
"व की वार पावापुरी के सरोवर मे सॉप न देख सकने से कुछ निराशा हुई । साप जब पानी मे नाचता है, तब वह दृश्य