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( २७७ ) भूषणों से सुसज्जित राजपरिवार ने अपनी प्रजा के साथ भक्तिप्लावित हृदय से भगवान् की वन्दना की । उनसे अन्तिम धर्मोपदेश सुना और अपने को कृतकृत्य हुआ माना । अतः भगवान ने सभा को छोड़ दिया- उनका समवशरण विघट गया । वह एकान्त मे शुक्लध्यान की परिपूर्णता मे निमग्न हो गये ! उन्होंने योगनिरोध दिया-निश्चल कायोत्सर्ग अवस्था मे वह लीन रहे। वह सदेह ध्यान ही वहाँ खड़े थे।
भगवान् का उत्कृष्ट आत्म-प्रभाव चहुँ ओर व्याप्त था। सब ही प्राणी परम समताभाव का अनभव कर रहे थे उन्हें सुख
और शान्ति का आनन्द मिल रहा था, सत्र ही बैर-विरोध विसार चुके थे। सिंह और हिरण भी साथ २ घम रहे थे। प्रकृति ने नवलरूप धारण करके अपना उल्लास प्रकट किया था। पृथ्वी ने हरी २ घास और रंगविरंगे फूलों को धारण करके मानों भगवान के चरणों की पूजा की थी। चहुँ ओर सुवासित मन्द पवन चल रहा था। वह स्थान"जय-जय"की ध्वनि से गज रहा था । सारांशतः सुन्दर वनोपवन और आनन्दविव्हल मनष्यों से वेष्टित पावापुरी साक्षात् अमरावती का भान करा रही थी।
निर्मल परमावगाढ़ सम्यक्त्व के धारक वह सन्मति भगवान् समस्त कर्मों को निमूल करके कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के अन्त समय मे जब कि चन्द्र स्वाति नक्षत्र पर था मुक्ति को प्राप्त हुये । उनके अव्यावाध अतिशय अनन्त सुखरूप सिद्ध पद को प्राप्त करते ही देवों के सिंहासन हिल उठे-उन्होने अवधिज्ञान से जाना कि भगवान् का मोक्ष कल्याणक हुआ है। वह होतिरेक मे उठे-मस्तक नमाया और भगवान के पवित्र और अनुपम शरीर की भक्ति पूर्वक पूजा करने के लिये पावा जा पहुँचे । इन्द्र ने अाजेन्द नाटक रचा और उत्सव मनाया।
भगवान का निर्वाण प्रगट घटना थी-उसके दर्शन करने