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महावीर की दृष्टि में शिक्षा, शिक्षक और शिक्षार्थी
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व्यावहारिक, समन्वित और सन्तुलित मार्ग प्रशस्तं किया गया है । इस बात पर भी बल दिया गया है कि एक अंग के विकास के अभाव में अन्य · अंगों का पूर्ण विकास सम्यक् नहीं है तथा विकास चाहे शरीर का हो, मस्तिष्क का हो अथवा प्रात्मा का, उद्देश्य वही है अर्हन्त तुल्य वनना । सम्यक चारित्र ही शिक्षा :
आज यद्यपि परिमाण की दृष्टि से शिक्षा का अत्यन्त प्रचार और प्रसार हुआ है, अनेकानेक विश्वविद्यालय हैं जहां सभी प्रकार की शिक्षा देने का प्रवन्ध है, फिर भी अनुशासन के नाम पर नित्य प्रति हमें छात्रों और अध्यापकों, अधिकारियों और सरकार के मध्य टकराव के अनेक दृश्य देखने को मिलते हैं। इसका एक मात्र कारण यह है कि आधुनिक शिक्षा विद्यार्थी के चरित्र और व्यवहार पर वांछित बल और व्यान नहीं देती । इसी समस्या के समाधान के लिए भगवान महावीर ने एक स्थल पर कहा है:
___चारित्त खलु सिखा' । अर्थात् चरित्र ही शिक्षा है । यदि पढ़-लिख कर छात्र का चरित्र निर्माण ही नहीं हुआ तो ऐसी शिक्षा का क्या लाभ ? चरित्र की परिभाषा करते हुए भगवान ने कहा है:
'असुहाहो विरिणवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चरितं'
अर्थात् अशुभ कर्मो से निवृत्त होना और शुभ कर्मों में प्रवृत्ति होना ही चरित्र कहलाता है । सम्यक् चारित्र ही शिक्षित मनुष्य की विशेषता है।
महावीर के उपदेशों को एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने किसी बात को अस्पष्ट नहीं छोड़ा है । जिस विषय के सम्बन्ध में भी उन्होंने अपना अभिमत प्रकट किया है उसकी सिद्धि और प्राप्ति के लिए उपाय भी सुझाए हैं। उदाहरणार्थ शिक्षा का उद्देश्य सम्यक् चारित्र को बताते हुए यह भी बताया है कि सम्यक् चारित्र का विकास कैसे किया जा सकता है ?
उनके अनुसार चारित्र के आधार निम्न पंच महाव्रत, चार भावनाएं एवं दश उत्तम धर्म हैं: पंच महाव्रत -
'अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । चार भावनाएं : (१) मैत्री भावना-'मित्ती में सव्वे भूएसु वैरं मज्झं ण केणई' अर्थात् सबसे मेरी
मैत्री हो, किसी से भी वैर न हो। . (२) प्रमोद भावना-गुणीजनों को देखकर उनसे सम्पर्क स्थापित करके प्रसन्न
और प्रमुदित होना। (३) कारुण्य भावना-पीड़ित, दुखी प्राणी मात्र के प्रति अनुकम्पा प्रकट करना। (४) मध्यस्थ भावना-अपने विरोधी के प्रति भी तथा जो प्रयत्नों के उपरान्त